Friday, 11 July 2008

दंगा

कपडे थे शरीर पर आदमी लेकिन नंगा था
मेरे शहर में जब भड़क उठा दंगा था

आदमी आदमी के लहू का प्यासा था
आकाश में उड़ते गिद्दों ने तब देखा ये तमाशा था

मानव बना प्रेत, कैसा उसके अंदर जूनून था
आंखों में था उतरा और सड़कों पर भी बहा खून था

वहशी बने इंसान ने कर दिए टूकडे भगवान् के
चहरे बन गए दुश्मन जो थे कभी पहचान के

सुहागिनों की सूनी कलाईया अपनी किस्मत पर रोती थी
मानवता ओढ़ चादर मजहब की जाने कहाँ सोती थीं

दो वक्त के चूल्हे जलते थे मुस्किल से जहाँ
आग की लपटें ही लपटें दिखती थी वहां

उतर गए मुखोटे कई, हर कोई नज़र आता था दुशाशन
किशन न थे भीड़ में कहीं, भीष्म बन बैठा था प्रशासन

नन्ही नन्ही आंखों में दहशत के बीज बो गए
आग लगे थी जिन्होंने ने आज वो नेता हो गए