Monday, 29 September 2008

ब्लास्ट

वो गुजरता था रोज़ वहाँ से
उस दिन भी वो गुजरा वहाँ से
लेकिन उस दिन हुआ वहाँ ब्लास्ट
फिर वो गुज़र गया……………

बम को तो फटना था
बम का क्या कसूर था
बम को थोड़े ही पता था
कि उसका नाम गफ़ूर था

वो ना सिमी का सद्स्य था
ना उसने भेजा कभी धमकी भरा ईमेल
ना ही दंगो के सिलसिले में गया कभी वो जेल
ना कभी उसने पाकिस्तानी झंडा लहराया
ना कभी उसने किसी एनकाउंटर को फ़र्ज़ी ठहराया
ना वो जुनूनी था ना जेहादी
ना खाकी से सबंध था उसका
ना पहनी उसने कभी खादी
उस दिन उसकी मौत का
वक्त तय जरूर था
कोई तो बताए की गफ़ूर का क्या कसूर था?
ना हूज़ि से ना लश्कर से उसका वास्ता था
उसकी साइकल के टायर तक जानते थे
कि ये रोज का उसका रास्ता था
दो रोटी के लिए जद्दोजेहद ही उसका जेहाद था
बूढ़े माँ-बाप और दो बहनों के लिए
अकेला कमानेवाला हाथ था
उस दिन वो बहुत खुश था
उसकी बहिन का रिश्ता तय हुआ था
उसका दिल किया कि वो कुछ गुनगुनाए
पर जैसे ही उसने होंठ हिलाए
विस्फोट हो गया और वो अभागा वहीं सो गया............
नियति का प्रहार भी कितना क्रूर था
कोई तो बताए गफ़ूर का क्या कसूर था ?
चारों तरफ चीख पुकार
बिखरे शव और खून की छीटों के बीच
गफ़ूर को पहचान लिया गया
किसी एक ने उड़ाई हवा
और फिर उसे ‘मानव बम’ मान लिया गया
सभी चॅनेल लगे चिल्लाने
शहर में ब्लास्ट
एक बड़े आतंकवादी संगठन का काम था
ब्लास्ट को अंजाम दिया ‘मानव बम’ ने
गफ़ूर जिसका नाम था
हाँ, वो मुसलमान जरूर था
पर क्या यही उसका कसूर था ?
कोई तो बताए गफ़ूर का क्या कसूर था?