Monday, 6 October 2008

वो दो कुत्ते

वो दो कुत्ते

वो दो कुत्ते जिनके नाम न थे
कर्फ्यू से अनजान टहलते हैं उस सड़क पर
जो गवाह बनी थी कलमजहबी जुनून की
सड़क पर बिखरे हैं उस कल के निशान आज भी
अधजले टायर, टूटी हुई बोतलें और इंसानी लहू के धब्बे
जो बयां कर रहे हैं कहानी उस कल की
जो इस शहर की चीखती छाती परदर्ज हो गया सदा के लिए

वो दो कुत्ते जिनके नाम न थे
घूमते हैं बिंदास अधजली दुकानों के अंदर
जो कुछ मिलता है झपटते हैं, संघर्ष करते हैं आपस में
और फिर थक कर सो जाते हैं वहीं सड़क के किनारे
होती है हरकत उनके सुस्ताते शरीर में
जब पुलिस की गाड़ी का सायरन गूंजता है
वो भोंकते हैं, पीछा करते हैं
अपना श्वान धर्म निभाकर वापस लौट आते हैं
वहींउसी सड़क के किनारे
वो दो कुत्ते जिनके नाम न थे

कुछ हैरान भी थे
ना बच्चों का शोर ना गाड़ियों की पों पों
ना फेरीवालों की आवाज़ें
शहर जैसे गुम हो गया था
एक खामोश मातम का गवाह
सुनता है तो सिर्फ पुलिस की गाड़ियों के सायरन
और लाउडस्पीकर से निकलती हिदायतें
घर के अंदर रहो शहर में कर्फ्यू लगा है

वो दो कुत्ते जिनके नाम न थे
कल भी लड़ते थे , पर कल कुछ यूँ हुआ कि
दो लड़कों ने उनके नाम रख दिए
वो दो कुत्ते अचानक बन गये
अलग-अलग मज़हबों के प्रतिनिधि
वो अनजान थे
वो दो कुत्ते नहीं जानते थे की उन पर लग गया है दाव
वो लड़ते जाते थे
तमाशबीन बढ़ते जाते थे
ना वो जीते ना हारे भीड़ देख कर भाग खड़े हुए
पर दाव तो दाव था
पहले बहस, फिर गाली-गलौज और फिर मारा-मारी
और फिर इस खेल में उतरे वो
जो सेकना चाहते थे सियासी रोटियाँ
फिर चली गोलियाँ...लाठियाँ
और.....फिर वो शहर दंगे की चपेट में था

वो दो कुत्ते जिनके नाम न थे
रात जंगल में काट लौट आए हैं वहीं उसी सड़क पर
आज भी वो लड़े, भिड़ें
एक हड्डी के लिए, जो शायद किसी इंसान की थी....
अब वो दो कुत्ते सुस्ता रहे हैं
शहर क्यों खामोश है शायद यही सोच रहे हैं !